क्यों भटकते हो बाहर ,कभी खुद को तो जानो
हे विधाता की रचना ,स्वयं को तो मानो
सुना है, अहं ब्रह्मास्मि ,शक्ति की पूरक
हे शक्ति संचयकर्ता,रीति की नीति मानो
कृष्ण ने कर्म को ,धर्म से श्रेष्ठ बोला
राम मर्यादित थे ,शब्द है ब्रह्म बोला
शब्द को कर शहद ,विश्व विजयी है मानो
क्यों भटकते हो बाहर,कभी खुद को तो जानो
गरीबी तुम्हारी ,भले जन्म से
अमीरी तुम्हारी ,तेरा कर्म हो
खुद के सामर्थ का ,समुचित उपयोग हो
खुद को आगे ही रखना ,तेरा धर्म हो
ज्ञान चक्षु को खोलो ,बल को अपने पहचानो
क्यों भटकते हो बाहर ,कभी खुद को तो जानो
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क्या पवनपुत्र को था पता , सिंन्धु लांघे
हमारा वही ,चायवाला है आगे
वही लंगोट वाला ,पतंजलि का मालिक
वही कलाम था,जिसका लोहा जग माने
जगा लो स्वयम्भू, शक्ति सम्पन्न मानो
क्यों भटकते हो बाहर,कभी खुद को तो जानो
।।धर्मेन्द्र नाथ त्रिपाठी”संतोष”llश्री हरि: